क्यों बिलोता हूँ कीचड़
शायद इसलिए
दूध की तरह
उफान न आए
क्यों लिखता हूँ
रेत पर अपने छंद
शायद इसलिए
कोई इतिहास बन जाए
क्यों देखता हूँ आईना
शायद इसलिए
चेहरे पर अपने
भरोसा नहीं
क्यों मौन हूँ
शायद इसलिए
वाणी चुर (चुराना) न जाए
क्यों रहता हूँ फटेहाल
सुदामा की तरह
शायद इसलिए
कृष्ण, मुझे भी अपनाएँ
क्यों है
सूरज से दोस्ती की लालसा
शायद इसलिए
रोशनी कहीं
अँधेरों में न सिमट जाए
क्यों लगाए हैं कैक्टस
शायद इसलिए
यमराज के आने का डर है
क्यों डर है रिश्तों से
शायद इसलिए
खून अपना
तुरूप की चाल न हो
यह सारी उम्मीदें क्यों
शायद इसलिए
असंभव
संभव हो जाए।
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